Friday, 2 September 2011

85. घर के अंदर बनवाती मंदिर


घर के अंदर बनवाती मंदिर,
रोज घी के दिए जलाती है.


कुछ काम करे भी तो कैसे,
बिना कुछ खाए-पिए,


कुछ खाने को कहे तो-
व्रत किया है ये बताती है.


कहती है,गाँव तो आखिर गाँव ही ठहरा ,
यहाँ शहरों की तरह,


ना टेलीफोन की सुविधा है.
ना मनोरंजन के साधनों में ही खास दम है.


और जब उसका दिल बहलाने के लिए,
थोडा रिझाने के लिए.


बहुत ज्यादा बोलता हूँ तो कहती है,
तू बोलता बहुत कम है.


मेरी बातों को सुनकर,
कभी थोडा गुस्सा दिखाती है,


तो कभी थोडा उछलती है,
और मुस्कराती है.


घर के अंदर बनवाती मंदिर ,
रोज घी के दिए जलाती है.


जब हंसी-हंसी में कहता हूँ,
कि तेरे पास क्या नहीं,


क्यों उदास रहती है.
तो कुछ  नहीं कहती है,


क्या खो गया तेरा जो सब कुछ 
चुपके से सहती है.


जो कुछ पूछता हूँ कि,
क्या अच्छा है गाँव में.
कुछ ना बोलकर ,नाक-सी चढ़ती है.


कहाँ फंस गई इन अनपढ़-गंवारों में,
ये सोचकर वापिस शहर को जाना चाहती है.


घर के अंदर बनवाती मंदिर,
रोज घी के दिए जलाती है.


काम करने की नीयत नहीं,
 बस बातों की  खाना चाहती हैं...


 





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