Sunday 4 September 2011

123. मैं अपनी जिंदगानी को


कहाँ से लिखना शुरू करूँ ,
मैं अपनी जिंदगानी को.


सबसे पहले लिखूँ बचपन की कहानी को,
या बयान करूँ अपनी जवानी को.


बचपन की कुछ टूटी-फूटी यादें हैं,
सिवा इसके कुछ बाद नहीं है.


आम बच्चों की तरह खेले-कूदे,स्कूल गए,
यों ही हँसते-खेलते बचपन बीत गया,
और ज्यादा कुछ याद नहीं है.


और कैसे पेश करूँ ,
मैं अपने बचपन की कहानी को.


कहाँ से लिखना शुरूं करूँ ,
मैं अपनी जिंदगानी को.


इसके बाद जवानी की दहलीज पर,
जैसे ही पाँव पड़ने लगे.


किसी को कुछ नहीं समझा उस दौर में,
सपनों के आकाश में उड़ने लगे.


याद करने लगे हर पल ,
सपनों की रानी को.
कुछ होश आया तब संभाला जवानी को.
पढ़-लिखकर कुछ बनने को ,
खुद को तैयार किया.


अपनी कड़ी मेहनत और लगन से,
सपनों को साकार किया.


अब कुछ भी लिखने को बैठ जाता हूँ,
फिर भी समझ नहीं पाया,
अपनी ही कहानी को.


अब अपनी ही कहानी को ,
सबके सामने दोहराते हैं.


किसकी समझ में आता है क्या बताएं ,
प्यार से सबको समझाते हैं.


पढ़-लिखकर कुछ बन जाओ.
सबको यही पढ़ाते हैं.


कंधों पर बोझ है परिवार का,
प्यार से जीवन की गाड़ी चलाते हैं.


कोई दर्द दिल को सताता है,
तब साथियों से बतलाते हैं.


मन खुश हो जाता है ,
जब दर्द कुछ हल्का हो जाता है.


इस तरह से जिन्दगी का सफ़र,
आगे बढ़ता जायेगा.


और एक दिन बुढ़ापा आएगा.
जिन्दगी को विराम लग जायेगा.


तब क्या बताएं कौन याद रखेगा,
और कौन क्या बतलायेगा...








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