Friday 2 September 2011

100. मैं मिलने को तरसता हूँ

चाहे फूल बरसते हों,
चुभन काँटों की होती है.


मैं मिलने को तरसता हूँ,
हर तरफ तन्हाई होती है.


नज़रें भी नहीं मिलाती ,
एक पल के लिए मुझसे.


मिलने को कहूं तो कैसे,
आज या कल के लिए उससे.


कोई सहलाये भी गाल अगर,
चोंट चांटों की होती है.


चाहे फूल बरसते हों ,
चुभन काँटों की होती है.


कहने को कुछ भी नहीं ,
बस चुप ही रहते हैं.


वो मिलने ही नहीं आई,
दर्द तन्हा ही सहते हैं.


मुझे नींद भी नहीं आती,
वो सोई रहती है.


मैं मिलने को तरसता हूँ,
हर तरफ तन्हाई होती है.


न जाने क्यों उसको,
 मेरी याद नहीं आती.


वो मिलने को मुझसे ,
शादी के बाद नहीं आती.


मैं चल भी नहीं पाता,
नींद रातों की होती है.


चाहे फूल बरसते हो,
चुभन काँटों की होती है.


वो कहती थी रहूंगी मैं ,
हरदम बनकर तेरी.


कहकर दिलबर मुझको ,
आँखे हैं उसने फेरी.


होंठों से बहता है लहू,
चोंट चांटों की होती है.


चाहे फूल बरसते हों ,
चुभन काँटों की होती है.


मैं मिलने को तरसता हूँ,
हर तरफ तन्हाई होती है.


चेहरे पर उसके भी ,
उदासी छाई होती है.


जब मिलने नहीं पाता,
जान आँखों में आई होती है .


चाहे फूल बरसते हों ,
चुभन काँटों की होती है.


उधर वो भी तरसती है ,
इधर मेरा भी बुरा हाल है.


मिलें तो कैसे मिलें हम,
हर तरफ नज़रों का जाल है.


ना इशारे ही होते हैं,
ना कोई बात ही हो पाती है.


यों ही बात करते-करते,
सुबह से शाम हो जाती है.


इस जुदाई के आलम में ,
दिल पे चोट बातों की होती है.


चाहे फूल बरसते हों,
चुभन काँटों की होती है.


मैं मिलने को तरसता हूँ,
हर तरफ तन्हाई होती है...

 




 

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