Sunday 4 September 2011

122. सज्जनों की कोई साख नहीं


सज्जनों की कोई साख नहीं ,
वाह-वाही होती है गद्दारों की.


दुनिया चाहती है दौलत को,
इज्जत नहीं ईमानदारों की.


बिकते हैं सब बाज़ारों में,
कीमत का कुछ अंदाज नहीं.


जिसको भी चीर के देखो,
निकलेगा दगाबाज वही.


अपना यहाँ पर कोई नहीं है,
मतलब के हैं यार सभी.


पैसों से खरीदों खुशियाँ सारी,
ना मोल मिलेगा प्यार कभी.


नशे में डूबा जो रहता है,
करता है अपना नाश वह.


देह को देखकर बन जाता है,
जानवर और बदहवाश वह.


समाज  के हैं ठेकेदार वो,
जिनका घर में कुछ भी मान नहीं.


लूटते हैं लाज अपनों की,
बनते हैं फिर अनजान वही.


पैसों की पकड़ में आ जाते हैं वो,
जिनको जरा भी ज्ञान नहीं.


जाना है सबको खाली हाथ  यहाँ से.
पैसों की खातिर क्यों करते हो कत्ले-आम.


प्यार से रहना सीख लो,
ना रखो बगल में छूरी मुँह में राम-राम ...










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