Saturday 10 September 2011

186. दर्पण में देखकर चेहरा


दर्पण में देखकर चेहरा ,
गुजरा वो जमाना याद आता है .


कितना सुनहरा वो दौर था,
न सिर से थे गंजे,न शरीर इतना कमजोर था.


न गाल इतनी पिचकी हुई थी,
आँखों में थी रोशनी,बाजुओं में भी जोर था .


अब खाएं भी तो क्या,
कुछ भी नहीं भाता है.


दर्पण में देखकर चेहरा,
गुजरा वो जमाना याद आता है.


चलते हैं तो आते हैं चक्कर,
काम कुछ भी नहीं कर पाते हैं.


कोई नहीं मानता कहना कमजोर का,
छोटा बच्चा भी नकार जाता है.


दर्पण में देखकर चेहरा,
गुजरा वो जमाना याद आता है.


जब चलते थे जुल्फों में हाथ फेरकर,
कितनी हसीनाएं खड़ी हो जाती थी हमें घेरकर.


एक-एक पल जवानी का,
कितनी जल्दी कट जाता है.


दर्पण में देखकर चेहरा,
गुजरा वो जमाना याद आता है.


हम कब ये सब सोच पाते हैं,
बस खाते हैं और सो जाते हैं.


न जाने कब,जिसे हम अपना कहते हैं,
वो गुजरा जमाना हो जाता है.


आने वाला कल पल में ही ,
बिता हुआ कल हो जाता है.


दर्पण में देखकर चेहरा,
गुजरा वो जमाना याद आता है.

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