Saturday 10 September 2011

189. जिन्दगी के हर मुकाम पे


जिन्दगी के हर मुकाम पे,
ना जाने कितने ही मोड़ आते हैं.


हर एक मोड़ पे ना जाने ,
कितने ही संग छोड़ जाते हैं.


हर रोज खाते हैं कसम ,
जिन्दगी-भर साथ निभाने की.


पर अगले ही पल निभा जाते हैं,
वही पुराणी रीत ज़माने की.


भूल जाते हैं किया हुआ हर वादा,
इंसानियत का नाता तोड़ जाते हैं.


एक मीट और शराब ने ,
कितनों के इमान बदले हैं.


दो कदम की दूरी कम करने को,
कितने ही इन्सान बदले हैं.


अपनी कमी को सही साबित करने के वास्ते,
दूसरों के दामन पे दाग छोड़ जाते हैं.


मैं समझाना चाहता हूँ उन गद्दारों को ,
जो धोखा देते हैं अपने यारों को .


वो नासमझ समझ नहीं पाते कि तुच्छ कर्मों से ,
विश्वास की डोर टूट जाती है .


व्हालाकी कुछ काम नहीं आती जब,
अपनी ही जिन्दगी हमसे रूठ जाती है.


जाते-जाते ज़माने पर अपनी
कितनी बुरी छाप छोड़ जाते हैं.


इंसानियत की राह पर चलने वालों को,
मतलब के मार्ग पर मोड़ जाते हैं.


जिन्दगी के हर मुकाम पे ना जाने ,
कितने ही मोड़ आते हैं.


हर एक मोड़ पर ना जाने ,
कितने ही संग छोड़ जाते हैं.



No comments:

Post a Comment