Sunday 4 September 2011

130. और आखिर मौत को गले लगा लिया


मेरे ख्वाबों की दुनिया का देवता था जो,
हकीक़त-ए-हालात में हवशी दरिंदा बन गया वो.


मैं मानती थी मैना मुझको,मेरा तोता था जो,
एक खतरनाक,खौंफनाक  परिंदा बन गया वो.


मैं रहती थी हरदम हृदय में जिसके,
मेरे संग जिन्दगी बिताने के सपने लेकर सोता था जो,


जरा-सी भी दया ना आई,मेरे अरमानो को लूटते समय,
फिर एक शरिफ्जादा,शरिमंदा बन गया वो.


मैं समझ नहीं पाई उसके इस खेल को,
जिसको वो प्यार कहता था.


मैं खिंची चली जाती थी उसके एक इशारे पर,
मुझे इसका जरा भी अहसास ना था ,
क्यों वो मेरा घंटो इंतजार करता था.


मौका-ए-बरसात देखकर,
मेरी बेबशी के हालात देखकर.


दिखा दी उसने औकात अपनी,
एक सुनसान रात देखकर.


मैं कुछ नहीं कर सकी जालिम ज़माने के डर से,
शर्म के मारे बाहर ना निकल सकी मैं अपने घर से.


और आखिर मौत को गले लगा लिया,
उस पापी के कहर से.


वैसे तो मरने वाली नहीं थी,
मैं किसी भी जहर से.


मगर क्या करती जीकर ,इज्जत गंवाने के बाद.
मरना ही मुनासिब समझा,लुट जाने के बाद.


जिस तरह से मैंने किया था,
कोई किसी पर विश्वास नहीं करेगा.


जिस वजह से मैंने मौत को गले लगाया है,
मेरे बाद कोई और नहीं मरेगा...



No comments:

Post a Comment