Saturday 10 September 2011

180. गैर तो गैर ठहरे


गैर तो गैर ठहरे,
अपनों ने भी तो गम ही दिया है.


दुःख ही दुःख देखे हैं मैंने,
सुख किसी ने नहीं दिया है.


जिसकी भी तरफ बढाया हाथ दोस्ती का,
उसी ने मुंह फेरा है.


जिस भी रास्ते जाना चाह,
उदासी ने ही घेरा है.


अकेले चलना लिखा है किस्मत में,
साथ सबने कम ही दिया है.


गैर तो गैर ठहरे ,
अपनों ने भी गम ही दिया है.


जिसको बनाया अपना ,
उसी ने तोड़ा मेरा सपना .


मंजिल ना मिलेगी मुझे,
जिन्दगी-भर रोना ही पड़ेगा.


उठा था तूफ़ान कुछ पाने का,
अब थम भी गया है.


गैर तो गैर ठहरे,
अपनों ने भी गम ही दिया है.


शिकायत ना करूँगा किसी से,
ना किसी से गिला ही करूँगा .


कसूर शायद मेरा ही है,
मैं अकेला ही मरूँगा.


आगे कौन साथ देगा मेरा,
अब तकका जीवन तो अकेला ही जिया है.


गैर तो गैर ठहरे,
अपनों ने भी गम ही दिया है.


No comments:

Post a Comment