Sunday 4 September 2011

115. मन को मंजिल नहीं मिलती चैन की


दौलत से देह को आराम मिलता है ,
मन को मंजिल नहीं मिलती चैन  की.


दलितों के दिलों को दुखाने से,
खुशियाँ छिन जाती हैं दिन की ,
नींदें उड़ जाती हैं रैन की.


जब अपने शारीरिक सुखों की खातिर,
किसी की खुशियों से खिलवाड़ करते हैं.


जब अपने अन्न के भंडार भरने की खातिर,
दूसरों की उपज का उजाड़ करते हैं.


तब ना इज्जत से जीते हैं,ना मरते हैं.
तड़फते हैं,जब लूटते हैं इज्जत किसी की बहन की,


दौलत से देह को आराम मिलता है,
मन को मंजिल नहीं मिलती चैन की.


दौलत का दलिया भी,
दाँतों को दुखाने लगता है.


क्योंकि इसी दौलत के छिन जाने से,
गरीबी का गम चबाने लगता है.


मन को मिलेगी मस्ती,जिन्दगी गुजरेगी हँसती.
अगर कमाओगे एक रोटी भी ईमान की.


दौलत को देह को आराम मिलता है,
मन को मंजिल नहीं मिलती चैन की.


इज्जत गंवाकर दौलत कमाना,
समझदारी नहीं होती.


इज्जत के लिए दौलत गँवा दो ,
चाहे दुनिया जहां की.


दौलत से देह को आराम मिलता है,
मन को मंजिल नहीं मिलती चैन की...










No comments:

Post a Comment