Sunday 4 September 2011

113.नारी की कहानी


तब वो गुलाब की कलि थी,
बड़े लड़-प्यार से पली थी.


ना उसका दिल किसी का आशिक था,
ना किसी पे फ़िदा उसकी जान थी.


अपने-पराये की ना उसको पहचान थी,
क्योंकि तब वो नादान थी.


अब वो जवां हो गई,
ना जाने क्या से क्या हो गई.


धरती पे पैर नहीं टिकते,
हवा में उड़ने लगी है.


ना किसी की सुनती है,ना मानती है,
बात-बात पे लड़ने लगी है.


ये कैसी जवानी है,
बड़ी लम्बी इसकी कहानी है.


कभी लिखती है हथेली पर नाम किसी का,
तो अगले ही पल मिटा देती है.


किसी को कहती है तू मेरे दिल में है,
तो किसी को पैरों की धूल चटा देती है.


कल वो किसी की पत्नी,किसी की माँ होगी,
क्या पता तब उसकी क्या दशा होगी.


करके पति की सेवा,पतिव्रता कहलाएगी,
या फिर दहेज़ की आग में जल जाएगी.


सुख से घर अपना बसा पायेगी,
बच्चों को प्यार से पाल पायेगी.


या दो-तीन बच्चों की माँ होकर भी,
पति को धोखा देकर,प्रेमी-संग भाग जाएगी.


परसों जब जिन्दगी की आखिरी शाम होगी,
कौन जाने ?  बगल में छुरी,मुंह में राम-राम होगी.


मरकर ,फिर से किसी के घर में जन्म लेकर,
अपनी वही कहानी दोहराएगी.


या फिर अपने नेक-कर्मों के कारण,
मोक्ष प्राप्त कर पायेगी...







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