Friday, 2 September 2011

84. जी चाहता है


तेरे इन उरेजों को सीने से दबाकर,
तेरे इन लबों को होठों से सटाकर.
तेरे झील से नैनों को ,आँखों में बसाकर,
तेरे हुस्न के रस को,पी जाने को जी चाहता है.


तेरे आँचल में खुद को छुपाकर,
तेरी बांहों में खुद को समाकर ,
तेरी जुल्फों को यूं लहराकर,
दिन को ही हसीं रात बनाने को जी चाहता है.


तुझ पे अपना इश्क-जाल फेंककर,
तेरे रंग-रूप को देखकर,
तुझसे अपनी नज़रों को सेंककर ,
तेरे सामने बेला बैठकर,
सारी जिन्दगी बिता देने को जी चाहता है.


तेरे आगे अपना अस्तित्व मिटाकर ,
तुझसे इतनी बड़ी प्रीत लगाकर,
तुझको अपना खुदा बनाकर,
तेरे प्यार में बुत बन जाने को जी चाहता है.


तुझको अपने दिल में बसाकर,
फिर प्यार-भरी बातों में फँसाकर,
डरा-धमकाकर या समझा-बुझाकर,फुसलाकर,
तेरे संग ख़ुशी का हरपल जी जाने को जी चाहता है.


तेरे घर बारात ले जाकर ,
तुझे दुल्हन के रूप में श्रृंगार कर,
तेरे संग शादी रचाकर,
तुझे अपना हमसफ़र बनाकर,
जिन्दगी-भर के लिए तुझे अपने घर में ,
लेन को जी चाहता है...



 




 

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