Friday, 2 September 2011

78.ना जाने कहाँ-कहाँ ढूँढा


यहाँ ढूँढा,वहां ढूँढा,
ना जाने कहाँ-कहाँ ढूँढा.


जब तुमसे मिल ना सका तो,
मुंह हो गया भूंडा .


 जब भी आवाज आई,बाल्टी के कड़े की ,
सोचा तुम आई हो पानी भरने को.


कर रही होगी इंतजार मेरा,
दौड़कर गया अपनी रानी से मिलने को.


लेकिन उधर दर्शन किया उनका,
जिनकी नज़रों में हूँ मैं गुंडा.


यहाँ ढूँढा,वहां ढूँढा,
ना जाने कहाँ-कहाँ ढूँढा.


जब तुमसे मिल ना सका तो ,
मुंह हो गया भुंडा.


बिना बताये ना जाने कहाँ चली गई,
शाम तक इंतजार किया लौट आने का.


करता भी तो क्या सिवाए इंतजार के,
कोई रास्ता भी तो नहीं था तुम्हें बुलाने का.


शाम भी बीत गई,मगर तू ना आई,
तेरे इंतजार में लाश बन गया मैं जिन्दा.


यहाँ ढूँढा,वहां ढूँढा,
ना जाने कहाँ-कहाँ ढूँढा.


जब तुमसे मिल ना सका तो,
मुंह हो गया भूंडा.


अब तो आ जाओ बांहों में ,
कब तक इंतजार कराओगी,


बुझा दो प्यास इस दिल की,
कब तक जुदाई के गम में तरसाओगी.


मुझ नरम घास को ,
क्या बनाओगी झुंडा.


यहाँ ढूँढा,वहां ढूँढा,
ना जाने कहाँ-कहाँ ढूँढा.


जब तुमसे मिल ना सका तो ,
मुंह हो गया भूंडा ....



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