Thursday, 1 September 2011

67. किस हक़ से कहूँ तुम्हें ये सब


तुम्हें नज़रों के सामने बैठाकर,
एक प्यारी-सी गज़ल लिखने को दिल करता है.


किस हक़ से कहूँ तुम्हें ये सब,
बस इसी बात से दिल डरता है.


तेरा मुझसे कोई रिश्ता भी तो नहीं,
 कि उस रिश्ते से तुम्हें पुकार सकूं.


नज़रों के सामने बैठाकर,
तेरे हुस्न को अपनी गज़ल में उतार सकूं.


नज़र पड़ती है जब भी तेरे हुस्न पर,
तम्हें नज़रों में उतारने को दिल करता है.


किस हक़ से कहूँ तुम्हें ये सब,
बस इसी बात से दिल डरता है.


चाहे किसी भी बहाने से हो,
बस तुमसे एक मुलाक़ात हो जाये.


ना रहे अपने बीच एक पल की भी ,
लब चाहे खामोश रहे आँखों ही आँखों में बात हो जाये.


नज़रों के द्वार से तुम्हें,
दिल में बसाने को दिल करता है.


किस हक़ से कहूँ तुम्हें ये सब,
बस इसी बात से दिल डरता है.


जिन्दगी-भर के लिए तुम्हें,
अपना बनाना चाहता हूँ.


तेरी हर एक अदा को,
 दिल से अपनाना चाहता हूँ.


कैसे होगी मेरी ये मुराद पूरी,
तेरे सामने दिल चुप जो रहता है.


किस हक़ से कहूँ तुम्हें ये सब,
बस इसी बात से दिल डरता है.,.

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