Thursday, 1 September 2011

62. कुछ समझ में नहीं आता


किसको अपनाएं ,किसको छोड़े,
कुछ समझ में नहीं आता .


कैसे ,कहाँ, बनेगी बात अपनी,
किसी को मैं तो कोई मुझे नहीं भाता.


सुनकर कहीं से मेरे बारे में,
हर रोज कोई नया चला आता है.


कुछ पूछता मेरी अपनी तो,
कुछ अपनी बतलाता है.


सप्ताह-भर का समय देकर ,
अपने यहाँ आने को कह जाता है.
लेकिन मैं हूँ कि कभी कहीं नहीं जाता,


किसको अपनाएं किसको छोड़े,
कुछ समझ में नहीं आता.


ऐसे ही नादानी करता रहा तो ,
जिन्दगी में एक दिन ऐसा मोड़ आएगा.


तन्हा ही जिन्दगी गुजारनी होगी ,
हर कोई मिलना छोड़ जायेगा.


फिर तन्हाई में बैठकर सोचा करूँगा,
काश! एक बार तो कहीं जाता.


किसको अपनाएं,किसको छोड़े,
कुछ समझ में नहीं आता.


ऐसे ही वक्त निकल जायेगा,
जिन्दगी कि शाम भी ढल जाएगी.


ना मैं किसी को अपना पाऊंगा,
ना कोई मेरी बन पाएगी.


किस्मत में है जो वही मिलता है सबको,
ये मुझे कोई क्यों नहीं समझाता.


किसको अपनाएं किसको छोड़े,
कुछ समझ में नहीं आता..


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