Friday, 2 September 2011

93.मिलते थे जिनको कभी

मिलते थे जिनको कभी बांहों में भर-भर के,
जीते हैं अब उनके बिना तन्हाई में मर-मर के.


खुद शादी करके चले गए,
किसी का घर आबाद करने के लिए.


हमारे बारे में कुछ ना सोचा ,
तनहा का तोहफा दे गए,हमें बर्बाद करने के लिए.


चाहते थे जिनको कभी दिलवाले बनकर,
तो कभी डर-डर के.


मिलते थे जिनको कभी बांहों में भर-भर के,
जीते हैं अब उनके बिना तन्हाई में मर-मर के.


रिश्ते तो हमारे भी कुछ कम नहीं आते,
कोई हमें तो किसी को हम पसंद नहीं आते.


कब,कहाँ किससे होगी मेरी शादी,
लाख कौशिश करके भी,कुछ समझ नहीं पाते,


खेलते थे संग जिनके कभी,
खेल आँख-मिचोली का जी भर-भर के.


मिलते थे जिनको कभी बांहों में भर-भर के,
जीते हैं अब उनके बिना तन्हाई में मर-मर के.


एक वो हैं जो पति-संग चैन से सोते हैं,
एक हम हैं जो उनको याद कर-कर के रोते हैं,


हम खुश होते हैं जब कभी केवल तभी
जब उनकी ख़ुशी के बारे में सुनते हैं.


ख़ुशी हमारा साथ ना दे पायेगी,
इसीलिए हम गम को चुनते हैं.


ढूंढते हैं उनका ही चेहरा ,
हर चेहरे में कौशिश कर कर के.


मिलते थे जिनको कभी बांहों में भर-भर के,
जीते हैं अब उनके बिना तन्हाई में मर-मर के...






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